Monday, December 20, 2010

निकानोर पार्रा की कविताएँ

( निकानोर पार्रा की गिनती लैटिन अमेरिका के बड़े कवियों में होती है. 1914 में जन्मे पार्रा के पिता एक शिक्षक, संगीतकार और पार्रा के शब्दों में 'बोहेमियन' थे. घर-परिवार की सारी देखभाल उनकी माँ कार्ला सैन्डोवल के ही जिम्मे थी. पार्रा के पाठकों के लिए यह नाम इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उनकी कविताओं में कई बार इस नाम का हवाला मिलता है. उनकी माँ एक बहुत कम पढी-लिखी महिला थीं लेकिन पार्रा की समस्त जानकारी का स्रोत वही थीं. पार्रा अपनी कविताओं को एंटी पोयम्स और अपने अनुवादों को एंटी ट्रांसलेशन नाम देते हैं. उनके अनुसार अनुवाद एक नामुमकिन बात है. उनकी एंटी पोयम्स को समझने का  'दूसरा' सबसे अच्छा तरीका यही है कि अनुवाद के इस नामुमकिनपन को स्वीकार कर लिया जाए. और सबसे अच्छा तरीका बकौल पार्रा स्पेनिश सीख लिया जाए. 
पार्रा कहते हैं कि, " Real seriousness rests in the comic." इस बात की रोशनी में पेश हैं उनकी गंभीर कवितायेँ   - Padhte Padhte )

किसी राष्ट्रपति की प्रतिमा बच नहीं पाती 
उन अचूक कबूतरों से 
कार्ला सैन्डोवल हमसे बताया करती थी :

ठीक-ठीक जानते हैं कबूतर क्या कर रहे हैं वे 
                    * *

नोबल पुरस्कार 
पढ़ने के लिए नोबल पुरस्कार 
दिया जाना चाहिए मुझे 
आदर्श पाठक हूँ मैं,
चाट जाता हूँ जो कुछ भी हाथ लगता है मेरे :

सड़कों के नाम पढ़ता हूँ मैं 
और रोशन साइनबोर्ड 
गुसलखाने की दीवारें 
और नई मूल्य-सूचियाँ पढ़ता हूँ 

पुलिस की ख़बरें,
और घुड़दौड़ के अनुमान 

और गाड़ियों के नंबर प्लेट 

मेरे जैसे इंसान के लिए 
शब्द ही हैं सबसे पवित्र 

जूरी के मेम्बरान 
झूठ बोलने से क्या मिलना है मुझे 
बतौर एक पाठक बहुत सख्त हूँ मैं 

चाट जाता हूँ सबकुछ - नहीं छोड़ता 
वर्गीकृत विज्ञापनों को भी 

ठीक है बहुत नहीं पढ़ता आजकल 
सीधी सी बात है कि वक़्त नहीं रहता मेरे पास 
लेकिन - ओह - यह क्या पढ़ डाला मैनें 

इसीलिए तो कह रहा हूँ आपसे 
दे ही दीजिए 
 मुझे
 पढ़ने का नोबल पुरस्कार 
जल्दी से जल्दी 
                    * *

कितना सही था उल्लू जब उसने कहा 
न तो मुहम्मद और न ही बुश :

हैमलेट ! 
सुव्यवस्थित संदेह का सूरमा : 

मैं संदेह करता हूँ इसलिए मैं हूँ 
                    * *

एक गुंजायमान शून्य 
कुछ नहीं तक सिमट आया यह पूरा का पूरा 
और इस कुछ नहीं में बहुत कम बाक़ी है 
                    * *

हँ ज्जी !
बीसवीं सदी के महानतम सच 
किताबों में नहीं मिलेंगे 

आप उन्हें पढ़ सकते हैं 
सार्वजनिक शौचालय की दीवारों पर 

बहुमत की इच्छा                                      प्रभु की इच्छा 

हाँ बिल्कुल, एक किताब में पढ़ा मैनें इसे 
                    * *

अपने हित का पक्षसमर्थक 
पहुंचता है महानगरीय कब्रिस्तान में  
"X" नाम की कब्र पर 
गुलनार के लाल फूलों का 
छोटा गुलदस्ता लिए हुए 
बड़ी गंभीरता से छूता है अपना हैट 
और किसी गुलदस्ते के अभाव में 
अपने फूल समर्पित करता है एक साधारण से कैन में 
जिसे निकाला है उसने बगल की कब्र से 
                    * *

(अनुवाद : Manoj Patel) 
Nicanor Parra 

3 comments:

  1. हिंदी में अनुवाद करने के लिए क्या आपने कभी स्पैनिश या फ़ारसी सीखने की ज़रूरत महसूस की है?

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  2. मेरे जैसे इंसान के लिए
    शब्द ही हैं सबसे पवित्र....

    संदेह करता हूं इसीलिए तो हूं

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