Monday, December 31, 2012

पाब्लो नेरुदा : यदि हर दिन

पाब्लो नेरुदा की एक और कविता...    


यदि हर दिन : पाब्लो नेरुदा 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

यदि हर दिन पड़े 
हर रात के भीतर, 
तो एक कुआँ होगा वहां 
जहां कैद होगी स्पष्टता. 
बैठना होगा हमें 
अंधकार के कुएँ की जगत पर 
और जाल डालकर पकड़ना होगा गिरी हुई रोशनी 
धैर्य के साथ. 
:: :: :: 

Saturday, December 22, 2012

दून्या मिखाइल : झूलने वाली कुर्सी

दुन्या मिखाइल की इस कविता का मेरा अनुवाद भी लगभग दो साल पहले 'नई बात' ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था.   
झूलने वाली कुर्सी : दून्या मिखाइल 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

जब वे आए, 
बड़ी माँ वहीं थीं 
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक 
झूलती रहीं वे...
अब 
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे 
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला 
छोड़कर इस कुर्सी को 
झूलते हुए.
         :: :: ::  

Wednesday, December 19, 2012

माइआ अंजालो की कविता


कोई दो साल पहले यह अनुवाद 'नई बात' ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था. आज इसे फिर से साझा करने का मन हुआ...    


मैं हूँ कि उठती जाती हूँ : माइआ अंजालो 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम दर्ज कर सकते हो मेरा नाम इतिहास में
अपने तीखे और विकृत झूठों के साथ
कुचल सकते हो मुझे गन्दगी में
लेकिन फिर भी धूल की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.

क्या मेरी बेबाकी परेशान करती है तुम्हें ?
क्यों घिरे बैठे हो उदासी में ?
क्योंकि मैं यूँ इतराती चलती हूँ
गोया कोई तेल का कुआं उलीच रहा हो तेल
मेरी बैठक में.

जैसे उगते हैं चाँद और सूरज
जैसे निश्चितता से उठती हैं लहरें
जैसे उम्मीदें उछलती हैं ऊपर
उठती जाउंगी मैं भी.

क्या टूटी हुई देखना चाहते थे तुम मुझे ?
झुका सर और नीची निगाहें किए ?
आंसुओं की तरह नीचे गिरते कंधे
अपने भावपूर्ण रुदन से कमजोर.

क्या मेरी अकड़ से ठेस पहुँचती है तुम्हें ?
क्या तुम पर बहुत भारी नहीं गुजरता
कि यूँ कहकहे लगाती हूँ मैं
गोया मेरे घर के पिछवाड़े सोने की खदान में हो रही हो खुदाई

तुम शब्दों के बाण चला सकते हो मुझ पर
चीर सकते हो मुझे अपनी निगाहों से
अपनी नफरत से कर सकते हो क़त्ल
फिर भी हवा की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.

क्या मेरी कामुकता परेशान करती है तुम्हें ?
क्या तुम्हें ताज्जुब होता है कि
मैं यूँ नाचती फिरती हूँ
गोया हीरे जड़े हों मेरी जांघों के संधि-स्थल पर ?

इतिहास के शर्म के छप्परों से
मैं उड़ती हूँ
दर्द में जड़ जमाए अतीत से
मैं उगती हूँ

एक सियाह समंदर हूँ मैं उछालें मारता और विस्तीर्ण
जज़्ब करता लहरों के उठने और गिरने को

डर और आतंक की रातों को पीछे छोड़ते
मैं उड़ती हूँ
आश्चर्यजनक रूप से साफ़ एक सुबह में
मैं उगती हूँ

उन तोहफों के साथ जो मेरे पुरखों ने मुझे सौंपा था
मैं उठती हूँ

मैं ही हूँ सपना और उम्मीद गुलामों की
मैं उड़ती हूँ
मैं उगती हूँ
मैं उठती हूँ. 
               :: :: :: 

Tuesday, December 18, 2012

ताहा मुहम्मद अली : एयरपोर्ट पर एक मुलाक़ात

फिलिस्तीनी कवि ताहा मुहम्मद अली की एक और कविता...   


एयरपोर्ट पर एक मुलाक़ात : ताहा मुहम्मद अली 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

एक बार तुमने पूछा था मुझसे, 
सुबह के वक़्त 
झरने की सैर से 
लौटते हुए: 
"तुम्हें किस चीज से नफरत है, 
और किससे है प्यार?" 

और जवाब दिया था मैंने, 
अपनी हैरत की 
पलकों के पीछे से, 
मेरा खून दौड़ता हुआ 
चिड़ियों के बादल से 
बन रही परछाईं की तरह: 
"मुझे जुदाई से है नफरत... 
और प्यार है झरने, और 
झरने तक के रास्ते से, 
और इबादत करता हूँ मैं 
सुबह के वक़्त की." 
और तुम हँसी थी... 
और फूल खिल उठे थे बादाम के पेड़ों में 
बुलबुलों के गान से गूँज उठा था झुरमुट. 

...एक सवाल 
आज चार दशक पुराना: 
मैं सलाम करता हूँ उस सवाल के जवाब को; 
और एक जवाब 
तुम्हारी जुदाई जितना ही पुराना; 
सलाम करता हूँ मैं उस जवाब के सवाल को... 

और आज, 
कितना अजीब है यह, 
एक दोस्ताना एयरपोर्ट पर मौजूद हैं हम, 
और कैसा दुर्लभ संयोग 
कि मुलाक़ात होती है हमारी. 
उफ़ मेरे मालिक! 
आमना-सामना हो गया हमारा. 
एक और 
बिल्कुल अजीब बात 
कि मैं तो पहचान गया तुमको 
मगर तुम नहीं पहचान पाई मुझे. 
पूछती हो तुम, 
"क्या तुम्हीं हो?!" 
पर विश्वास नहीं होता तुम्हें. 
और अचानक 
बोल फूटते हैं तुम्हारे: 
"अगर सचमुच ये तुम हो 
तो बताओ मुझे 
कि तुम्हें किस चीज से नफरत है 
और किससे है प्यार?!" 

और मेरा खून दौड़ता हुआ मेरे भीतर 
चिड़ियों के बादल से 
बन रही परछाईं की तरह 
जैसे निकल जाता है हाल से बाहर, 
और जवाब देता हूँ मैं: 
"मुझे जुदाई से है नफरत, 
और प्यार है झरने, और 
झरने तक के रास्ते से, 
और इबादत करता हूँ मैं 
सुबह के वक़्त की." 

और तुम रोईं, 
और फूलों ने झुका लिए अपने सर, 
और अपने गम में डूबे सिसकने लगे कपोत. 
               :: :: :: 

Tuesday, December 11, 2012

अलीना माल्दोवा है मेरा नाम

क्रिस्टीना टोथ की तीन कविताओं की सीरीज 'पूर्वी यूरोप : त्रिफलक' से एक और कविता...   


पूर्वी यूरोप   त्रिफलक : क्रिस्टीना टोथ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अलीना माल्दोवा है मेरा नाम. 
पूर्वी यूरोप की हूँ मैं, 
मेरी लम्बाई है 170 सेंटीमीटर 
और जीवन-प्रत्याशा 56 साल. 
दांतों में चांदी भरवा रखी है मैंने 
और एक आनुवांशिक डर ढोती रहती हूँ अपनी छाती में. 
जब बोलती हूँ अंग्रेजी तो कोई नहीं समझ पाता मेरी बात, 
जब बोलती हूँ फ्रेंच तो कोई नहीं समझ पाता मेरी बात, 
सिर्फ डर की भाषा ही है 
जिसे मैं बोलती हूँ बिना किसी स्वराघात के. 

अलीना माल्दोवा है मेरा नाम. 
एक मानव-रहित रेलवे-क्रासिंग हैं मेरे हृदय के वाल्व, 
जहर दौड़ा करता है मेरी रगों में, 
56 साल है मेरी जीवन-प्रत्याशा. 
मैं पाल रही हूँ अपने दस साल के बेटे को, 
थोड़ा सा आटा मिल जाता है मुझे, चलती हुई ट्रेनों पर चढ़ती हूँ मैं. 
चाहे मारो तुम मुझे, चाहे झकझोरो 
बस थोड़ा सा झनझनाती है मेरी झुमकी, 
जैसे कोई ढीला पुर्जा 
अभी तक चल रही एक मोटर का. 
                  :: :: :: 

Monday, December 3, 2012

क्रिस्टीना टोथ की कविता

क्रिस्टीना टोथ हंगरी की जानी-मानी कवयित्री हैं. हंगरी साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक लारीअट पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित. फिलहाल बुडापेस्ट में रहती हैं जहां कविताओं के लेखन और अनुवाद के अतिरिक्त स्टेंड ग्लास विंडोज की डिजायनिंग भी करती हैं. यहाँ उनकी तीन कविताओं की एक सीरीज 'पूर्वी यूरोप : त्रिफलक' से एक कविता प्रस्तुत है...    

पूर्वी यूरोप   त्रिफलक : क्रिस्टीना टोथ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

लाउडस्पीकर पुकारता है हमारा नाम 
और हम खड़े हो जाते हैं उछलकर. गलत हिज्जे लिखे जाते हैं 
हमारे नाम के और गलत उच्चारण किया जाता है उनका, 
मगर हम मुस्कराया करते हैं शालीनतापूर्वक. 
हम साबुन उठा लाते हैं होटल से, 
और बहुत पहले पहुँच जाते हैं स्टेशन. 
भारी सूटकेस उठाए, ढीली-ढाली पतलूनों में, 
हर कहीं मंडराया करता है हमारा एक हमवतन. 
ट्रेन गलत दिशाओं में लेकर चली जाती हैं हमें, 
और जब पैसे देते हैं हम, इधर-उधर लुढ़का करती है रेजगारी. 

हम डरे होते हैं अपनी सरहदों पर, और गुम हो जाते हैं 
उनके आगे, मगर पहचानते हैं एक-दूसरे को. 
हम परिचित हैं दुनिया के दूसरे हिस्से से, 
कोट के नीचे पसीने से तर कपड़ों से. 
स्वचालित सीढ़ियाँ होती हैं हमारे नीचे, 
ठसाठस भरे होते हैं शापिंग बैग, और हमारे जाते समय 
बज उठता है अलार्म. 
हमारी चमड़ी के नीचे, चमक बिखेरते एक रत्न की तरह 
एक माइक्रोचिप है किसी अपराध-बोध की. 
                    :: :: ::

Monday, November 26, 2012

अरुंधती राय : केजरीवाल के खुलासे

पिछले साल अगस्त में अन्ना हजारे के आन्दोलन पर कई महत्वपूर्ण सवालों को उठाते हुए अरुंधती राय ने एक लेख लिखा था. तबसे गंगा में काफी पानी बह चुका है और अन्ना हजारे तथा अरविन्द केजरीवाल के रास्ते भी जुदा हो चुके हैं. अरविन्द केजरीवाल ने अपनी 'आम आदमी' पार्टी बना ली है और पिछले कुछ दिनों से उन्होंने ताकतवर नेताओं तथा उद्योगपतियों पर हमला बोल रखा है. इन्हीं सब मुद्दों पर चर्चा करता हुआ सबा नकवी द्वारा ई मेल के माध्यम से लिया गया अरुंधती राय का एक साक्षात्कार 'आउटलुक' में प्रकाशित हुआ है. प्रस्तुत है कुछ ख़ास अंश... 














चुनाव के माध्यम से बदलाव की कोशिश करने वाले लोग चुनाव से खुद ही बदल जाते हैं : अरुंधती राय 
(अनुवाद/ प्रस्तुति : मनोज पटेल) 

भ्रष्टाचार के ये खुलासे मजेदार घटनाएं हैं. उनके बारे में एक अच्छी बात यह है कि वे हमें यह समझने की एक अंतर्दृष्टि मुहैया कराते हैं कि सत्ता के तंत्र कैसे जुड़ते और गुंथते हैं. चिंताजनक बात यह है कि हर घोटाला पिछले वाले को धकेल कर रास्ते से हटा देता है और ज़िंदगी चलती रहती है. यदि इनसे हमें एक अतिरिक्त-प्रचंड चुनाव अभियान ही मिल पाया तो यह उस सीमा को ही बढ़ा सकता है जो हमारे शासकों की समझ से हम बर्दाश्त कर सकते हैं, या जितना बर्दाश्त करने के लिए हमें बहलाया जा सकता है. कुछ लाख करोड़ से कम के घोटाले हमारी तवज्जो ही नहीं पाएंगे. चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों का एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप या कंपनियों से संदिग्ध सौदे करने का आरोप नया नहीं है. एनरान के खिलाफ भाजपा और शिवसेना की मुहिम याद है? आडवाणी ने इसे 'उदारीकरण के माध्यम से लूट' कहा था. महाराष्ट्र में वह चुनाव वे जीत गए थे, एनरान और कांग्रेस सरकार के बीच हुआ समझौता रद्द कर दिया था और फिर एक उससे भी खराब समझौते पर दस्तखत कर दिए थे. 

यह तथ्य भी चिंताजनक है कि इनमें से कुछ 'खुलासे', अपने विरोधियों को पछाड़ने के मकसद से एक-दूसरे का राजफाश कर रहे नेताओं और कारोबारी घरानों द्वारा किए गए रणनीतिक लीक हैं. जिनके खुलासे किए गए --सलमान खुर्शीद, राबर्ट वाड्रा, गडकरी-- उन्हें उनकी पार्टियों ने और भी मजबूती से गले लगा लिया है. नेता इस सच्चाई से अवगत हैं कि भ्रष्टाचार के आरोपी या दोषी होने से हमेशा उनकी लोकप्रियता में फर्क नहीं पड़ता. अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों के बावजूद मायावती, जयललिता, जगमोहन रेड्डी अत्यंत लोकप्रिय नेता बने हुए हैं. जहां आम लोग भ्रष्टाचार से व्यथित हैं वहीं यह भी लगता है कि मतदान का समय आने पर उनकी गणित अधिक चतुर, अधिक जटिल हो जाती है. जरूरी नहीं कि वे अच्छे लोगों को वोट दें.  

अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने अहम भूमिका निभाकर मीडिया के लिए मुद्दे को बिसराना कठिन बना दिया है. लेकिन खुलासों की अचानक बाढ़ का सम्बन्ध नेताओं के विभिन्न गठबन्धनों, बड़े निगमों और उनके स्वामित्व वाले मीडिया घरानों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भी है. मसलन मुझे इन अटकलों में कुछ सच्चाई नजर आती है कि गडकरी के खुलासे का सम्बन्ध नरेंद्र मोदी द्वारा खुद को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत करने और विरोधी गुटों को रास्ते से हटाने से है. यह भ्रष्टाचार और बैलेंसशीटों का ज़माना है -खून पुराना पड़ चुका है. कितना अजीब है जब आप टिप्पणीकारों को अक्सर यह कहते हुए पाते हैं कि मुस्लिमों के खिलाफ संघ परिवार के 2002 के गुजरात जनसंहार से हटकर अब आगे देखने का वक़्त आ गया है. दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की अगुआई वाले 84 के सिखों के नरसंहार को भी भुला दिया गया है. यदि वे आर्थिक रूप से भ्रष्ट न हों तो क्या हत्यारे और फासिस्ट ठीक हैं? केजरीवाल और प्रशांत भूषण की अगुआई में चलाया जा रहा नया भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन जो कर रहा है, वह जरूरी काम है जो कि वास्तव में मीडिया और जांच एजेंसियों द्वारा किया जाना चाहिए था और जिसमें आम जनता बाहर से व्यवस्था पर दबाव बना रही होती. मुझे भरोसा नहीं है कि चुनाव लड़ने जा रही एक नई राजनीतिक पार्टी कोई सही तरीका है. इस बात का एक कारण है कि क्यों बड़े राजनीतिक दल सबको खुशी-खुशी चुनाव लड़ने का न्योता देते हैं. वे जानते हैं कि इस इलाके में उनकी चलती है. वे नए खिलाड़ियों को अपने सर्कस के जोकरों में बदल देना चाहते हैं. 

इस रास्ते पर बहुत से लोग पहले भी चल चुके हैं. उदाहरण के लिए यदि केजरीवाल की पार्टी कुछ ही सीटें जीतती है, या एक भी सीट नहीं जीतती, तो इसका क्या मतलब होगा? कि भारतीय जनता का बहुलांश भ्रष्टाचार समर्थक है?      

भ्रष्टाचार शक्तिशाली और शक्तिहीन लोगों के बीच बढ़ती खाई का एक लक्षण है. इसे संबोधित किया जाना जरूरी है. नैतिक पुलिसिंग या वास्तविक पुलिसिंग कोई समाधान नहीं हो सकती. उससे क्या हासिल हो सकता है? एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को अधिक साफ-सुथरा और अधिक कुशल बनाने का? नुक्ता यह है कि हम भ्रष्टाचार को कैसे परिभाषित करते हैं? यदि कोई औद्योगिक घराना किसी कोयला क्षेत्र का ठेका पाने के लिए एक हजार करोड़ रूपए रिश्वत देता है तो यह भ्रष्टाचार है. यदि कोई मतदाता किसी नेता विशेष को अपना वोट देने के लिए एक हजार रूपए लेता है तो यह भी भ्रष्टाचार है. यदि समोसे का एक खोमचे वाला फुटपाथ पर थोड़ी सी जगह पाने के लिए सिपाही को सौ रूपए की घूस देता है तो यह भी भ्रष्टाचार है. मगर ये सभी चीजें क्या एक ही हैं? मैं यह नहीं कह रही कि भ्रष्टाचार पर नजर रखने के लिए कोई शिकायत निवारण प्रणाली ही नहीं होनी चाहिए, बिल्कुल होनी चाहिए. लेकिन उससे असली समस्या का समाधान नहीं होगा क्योंकि बड़े खिलाड़ी अपनी करतूतें छिपाने में और बेहतर ही हो जाएंगे. 

क्या भ्रष्टाचार के संकीर्ण और भंगुर लेंस से हम जाति और वर्ग की राजनीति को समझ और संबोधित कर सकते हैं? क्या उससे हम नस्ल, लिंग, धार्मिक उग्रराष्ट्रीयता, अपने सम्पूर्ण राजनीतिक इतिहास, पर्यावरण के विनाश की मौजूदा प्रक्रिया और भारत के इंजन को चलाने वाली या नहीं चलाने वाली अन्य अनगिनत चीजों को समझ सकते हैं? 

बदलाव आएगा. उसे आना ही है. लेकिन इस बात में मुझे संदेह है कि वह किसी ऎसी राजनीतिक पार्टी के लाए आएगा जो चुनाव जीतकर व्यवस्था को बदलने की उम्मीद कर रही हो. क्योंकि जिन लोगों ने चुनावों के माध्यम से व्यवस्था को बदलने की कोशिश की थी उनका अंजाम यह हुआ है कि चुनावों ने खुद उन्हें ही बदल दिया है --देखिए कि कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ क्या हुआ. मुझे लगता है कि ग्रामीण इलाकों में हो रहे विद्रोह शहरों की ओर बढ़ेंगे. जरूरी नहीं कि किसी एक बैनर के तहत या किसी व्यवस्थित या क्रांतिकारी तरीके से ही. यह सुन्दर तो नहीं होगा, मगर यह अपरिहार्य है.  

ये निगम और नेता यदि निष्ठापूर्वक ईमानदार हो जाएं तो भी किसी देश के लिए ऎसी स्थिति में होना बेतुका ही होगा. जब तक बड़े निगमों पर अंकुश नहीं लगाया जाता और क़ानून द्वारा उन्हें सीमित नहीं कर दिया जाता, जब तक उनके हाथों से ऎसी बेहिसाब ताकत (जिसमें राजनीति और नीतिनिर्धारण, न्याय, चुनाव और ख़बरों को खरीदने की ताकत शामिल है) का नियंत्रण वापस नहीं ले लिया जाता, जब तक कारोबार के क्रास-ओनरशिप का नियमन नहीं होता, जब तक मीडिया को बड़े व्यवसायों के पूर्ण नियंत्रण से मुक्त नहीं करा लिया जाता, हमारे जहाज का डूबना तय है. कितना भी शोर, कितना भी भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन, कितना भी चुनाव इसे रोक नहीं सकता. 
                                                                 :: :: :: :: 
(आउटलुक से साभार) 

Thursday, November 22, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : सफ़हा नंबर 163 पर एक तस्वीर


पाकिस्तानी कवि अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...   

सफ़हा नंबर 163 पर एक तस्वीर : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 

उसे किसी अजनबी दरिया के किनारे बैठकर  
अपने शहर को याद करने की 
ज़रूरत नहीं है   

वह महाखाली सेटिलमेंट से खुश है 
जिसका तज़्किरा कोपेनहेगेन में दिए गए 
एक लेक्चर में आता है 

वह तैरकर भी 
उस गारमेंट फैक्ट्री तक जा सकती है 
जहां उसने मैट्रिक पास करने के बाद से 
काम करना शुरू किया है 

वह एक मुश्तरका वी सी आर पर 
हफ़्ते में तीन फ़िल्में एक साथ देखती है 
और हर पहली तारीख़ को 
पूरी एक किलो हिल्सा मछली खरीदकर घर में लाती है 
उसका बीमार बाप 
आवारा भाई 
या नादीदा दुश्मन नहीं है 

वह सारी उम्र कुँआरी रह जाएगी 
ऐसा नहीं है 

एक लड़का है 
स्कूल में पढ़ाता है 
न्यूयार्क में ड्राइवर 
या कराची में बावर्ची बनने का ख़्याल नहीं रखता 

बांस की दीवारों 
और टीन की छत वाले घर में 
वह ख़ुश है 

जब उसे कम्यूनिटी थिएटर में 
एक किरदार के लिए मुंतखिब नहीं किया गया 
उसे कोई अफ़सोस नहीं हुआ 

उसी दिन उसे 
पानी की फ़राहमी के दफ़्तर के सामने 
मुजाहरा करने वाली लड़कियों के वफ्द में शामिल किया गया है 

किसी ने उसे ख़ुश रहना नहीं सिखाया है 
यह उसे आता है 
उसे नहीं मालूम गुरबत की लकीर 
उसके बदन पर कहाँ से गुजरती है 

उसका ग़रीब मुल्क 
दो बार आज़ाद हुआ है 

वह दुनिया भर से ज़्यादा आज़ाद 
और ज़्यादा ख़ुश है  
            :: :: :: 

सफ़हा  :  पृष्ठ 
तज़्किरा  :  जिक्र 
मुश्तरका  :  साझे का 
नादीदा  :  अनदेखा, अदृश्य 
मुंतखिब  :  चुना जाना 
फ़राहमी  :  संचय, पूर्ति  
मुजाहरा  :  प्रदर्शन 
वफ्द  :  प्रतिनिधिमंडल 
गुरबत  :  गरीबी, कंगाली  

Monday, November 19, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : रोकोको और दूसरी दुनियाएँ


आज प्रस्तुत है पाकिस्तानी कवि अफ़ज़ाल अहमद सैयद की किताब 'रोकोको और दूसरी दुनियाएं' से यह कविता...    

रोकोको और दूसरी दुनियाएँ : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 

गोया जानिबदार था 
बालकनी पर माहाएं बनाने वाला 

उसकी रोकोको दुनिया 
तीन मई को मैड्रिड की एक तारीक गली में ख़त्म हो गई 

उसने फ़रामोश कर दिया 
छतरियां लेकर चलने वाली लड़कियां उसके कैनवस और बिस्तर की 
ज़ीनत होती थीं 

उसका कैनवस जमीन पर रखी एक लालटेन से 
रोशन है 

सिपाही जिनके चेहरे नजर नहीं आ रहे 
बेमुज़ाहमत शहरियों पर गोली चलाते हैं 
हर शख्स अपने अंदाज़ में मौत का सामना करता है 
अपना सीना तान रखा है 
बाद में आने वाले मुसव्विर 
इस मौज़ू को दोहराते रहेंगे 

उसकी आखिरी तस्वीर की असल 
किसी इंक़लाब में मारी गई होगी 

बरसबील तज़्किरा 
गोया ने नेपोलियन के खिलाफ 
स्पेन के बाग़ियों की हिमायत की थी 

( गोया : स्पेन का मारूफ़ मुसव्विर  
रोकोको : अठाहरवीं सदी में यूरोप भर में मक़बूल होने वाली मुसव्वरी की तहरीक जिसमें नहायनां नज़ाकत के साथ उमरा के तबके के फ़ुर्सत के मशाग़ल की अक्कासी की जाती थी ) 
                    :: :: :: 

जानिबदार  = तरफदार 
बरहना  = नग्न 
मलबूस = लिबास में 
फ़रामोश  =  विस्मृत 
ज़ीनत  =  शोभा
मुसव्विर  = तस्वीर बनाने वाले 
बेमुज़ाहमत  =  विरोध न करने वाले 
मौज़ू  =  विषय 
बरसबील तज़्किरा = चर्चा के तौर पर जिक्र, चलते-चलते  
मारूफ़   =  प्रसिद्ध 
मुसव्विर  =  तस्वीर बनाने वाला, पेंटर 
तहरीक  =  आंदोलन 
उमरा तबका  =  अमीर वर्ग 

Friday, November 16, 2012

एथलबर्ट मिलर : रेबेका

एथलबर्ट मिलर की एक और कविता...    


रेबेका : एथलबर्ट मिलर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

क्या मैं नफरत करने लगूंगी आईनों से? 
नफरत करने लगूंगी अक्सों से?
क्या मैं नफरत करने लगूंगी कपड़े पहनने से? 
कपड़े उतारने से नफरत करने लगूंगी क्या? 

मेरा पति जिम कहता है मुझसे 
कि कोई फर्क नहीं पड़ता इससे 
चाहे एक रहे मेरे पास या दो 
दो या एक कोई फर्क नहीं 
वह कहता है 

मगर पड़ता है फर्क 
मुझे पता है कि पड़ता है 

मेरी देह है यह  
दक्षिण अफ्रीका या निकारागुआ नहीं 
मेरी देह 
एक जंग हारती हुई कैंसर के खिलाफ 
और अस्पताल के बाहर कोई प्रदर्शनकारी भी नहीं 
बंद करो का नारा लगाने के लिए 

केवल जिम है वहां 
बैठा हुआ बरामदे में 
सोचता हुआ कि क्या कहेगा वह 
अगली बार प्यार करते समय 
जब बढ़ेंगे उसके हाथ 
बचे हुए मेरे एक स्तन की ओर 

कैसे समझाएंगे हम खुद को 
कि कोई फर्क नहीं पड़ता इससे? 
कैसे स्वीकार करूंगी अपनी नग्नता को 
जो अब नहीं रही सम्पूर्ण? 
               :: :: ::  

Tuesday, November 13, 2012

एथलबर्ट मिलर : शिकारी

एथलबर्ट मिलर की एक और कविता...   


शिकारी : एथलबर्ट मिलर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

पुरुष 
जो 
पीछा करते हैं 
स्त्रियों 
का 

होते हैं 
शिकारियों  
की तरह  

जो 
पकड़ने के बाद 

मार देते हैं 
अपना 
शिकार. 
:: :: :: 

Thursday, November 8, 2012

लोला हास्किंस : मुहब्बत

लोला हास्किंस की एक कविता...   



मुहब्बत : लोला हास्किंस 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

वह पहन कर देखती है उसे, किसी कपड़े की तरह 
और तय करती है कि वह ठीक नहीं आ रही उस पर, 
फिर उसे शुरू करती है उतारना 
उतर आती है उसकी चमड़ी भी.
            :: :: :: 

Tuesday, November 6, 2012

अन्ना स्विर की कविता

अन्ना स्विर की एक और कविता...   


मुर्दों से मेरी बातचीत : अन्ना स्विर 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मुर्दों के साथ एक ही कम्बल ओढ़कर सोई मैं 
माफी मांगती हुई उनसे 
अपने अभी तक ज़िंदा रहने के लिए. 

बेमतलब था वह. उन्होंने माफ़ कर दिया मुझे. 
गलत था मेरा ख्याल. हैरान हुए वे भी. 
आखिरकार 
ज़िंदगी कितनी खतरनाक थी उस वक़्त. 
               :: :: :: 
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