Sunday, February 19, 2012

अरुंधती राय : अनुराधा गांधी एक अलग तरह की इंसान थीं


अनुराधा गांधी के चुने हुए लेखों का संग्रह 'स्क्रिप्टिंग द चेंज' दानिश बुक्स से प्रकाशित हुआ है. इस किताब की भूमिका अरुंधती राय ने लिखी है.  


























अनुराधा अलग तरह की थी : अरुंधती राय 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

'अनुराधा अलग तरह की थी', अनुराधा को जानने वाला हर शख्स यही कहता है. यह हर उस इंसान का ख्याल है जिसके संपर्क में वह आईं. 

उनकी मृत्यु मुम्बई के एक अस्पताल में १२ अप्रैल २००८ को मलेरिया के कारण हुई थी. इस बीमारी ने संभवतः उन्हें झारखंड के जंगलों में जकड़ा था जहां कि वे आदिवासी स्त्रियों की कक्षाएं लिया करती थीं. हमारे इस महान लोकतंत्र में अनुराधा गांधी ऐसे लोगों में से थीं जिन्हें 'माओवादी आतंकवादी' कहा जाता है, गिरफ्तार होने या अपने सैकड़ों अन्य साथियों की तरह फर्जी मुठभेड़ में मार गिराए जाने के लिए अभिशप्त. इस आतंकवादी को जब तेज बुखार हुआ तो वह जिस अस्पताल में अपने खून की जांच कराने के लिए गई वहां उसने अपना इलाज कर रहे डाक्टर के पास एक फर्जी नाम दर्ज कराया और एक फर्जी फोन नंबर छोड़ा. इसलिए वह डाक्टर उन्हें यह नहीं सूचित कर पाई कि खून की जांच से ऐसे मलेरिया का पता चला है जो जानलेवा हो सकता है. अनुराधा के अंग एक एक कर नाकाम होते गए. ११ अप्रैल को जब उन्हें अस्पताल में दाखिल कराया गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. और इस तरह बिलकुल गैरजरूरी तरीके से हमने उन्हें खो दिया. 

अपनी मृत्यु के समय वे ५४ साल की थीं और तब तक अपनी ज़िंदगी के तीस साल वे एक भूमिगत और प्रतिबद्ध क्रांतिकारी के रूप में बिता चुकी थीं.  

अनुराधा गांधी 
मुझे कभी अनुराधा गांधी से मिलने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ मगर उनकी मृत्यु के बाद मैं उनकी श्रद्धांजलि सभा में गई थी और मैं कह सकती हूँ कि वे सिर्फ एक बहुप्रशंसित महिला ही नहीं बल्कि एक ऎसी शख्स भी थीं जिनसे लोग बहुत प्यार करते थे. उन्हें जानने वाले लोगों द्वारा बार-बार उनकी 'कुर्बानियों' का जिक्र किए जाने से मैं थोड़ा चकित भी हुई. इससे संभवतः उनका आशय रैडिकल पालिटिक्स के लिए अनुराधा द्वारा की गई एक मध्य-वर्गीय जीवन के आराम और सुरक्षा की कुर्बानी से था. हालांकि मेरे लिए अनुराधा गांधी ऎसी शख्स हैं जिन्होनें अपने सपने पर काम करने के लिए खुशी-खुशी उबाऊपन से भरी घिसी-पिटी ज़िंदगी को अलविदा कह दिया. वे कोई संत या मिशनरी नहीं थीं. उन्होंने एक खुशहाल जीवन जिया जो मुश्किल किन्तु संतोषप्रद था.  

युवा अनुराधा अपनी पीढ़ी के बहुत से अन्य लोगों की तरह ही पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी आन्दोलन से प्रभावित थीं. एल्फिन्स्टन कालेज की इस छात्रा पर सत्तर के दशक में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में पड़े अकाल का गहरा असर पड़ा. हताश भूख के शिकार लोगों के साथ काम ने ही उनके विचारों को आकार दिया और उन्हें उग्रपंथी राजनीति के बिलकुल अलग रास्ते पर मोड़ दिया. अपने कामकाजी जीवन की शुरूआत उन्होंने विल्सन कालेज मुम्बई में बतौर एक लेक्चरर की मगर १९८२ में वे नागपुर चली गईं. अगले कुछ साल उन्होंने नागपुर, चंद्रपुर, अमरावती, जबलपुर में निर्धनतम लोगों, ईंट गारा करने वाले मजदूरों और कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूरों को संगठित करते हुए बिताए और इस दौरान वे दलित आन्दोलन की अपनी समझ को भी और पैना करने में जुटी रहीं. नब्बे के दशक में मल्टीपल सिरोसिस से पीड़ित होने के बावजूद वे बस्तर गईं और दंडकारण्य जंगल में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (PLGA) के साथ तीन साल बिताए. यहाँ उन्होंने क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन (KAMS) नामक असाधारण महिला संगठन को मजबूत और विस्तारित करने के लिए कार्य किया जो नब्बे हजार सदस्यों वाला संभवतः देश का सबसे बड़ा नारीवादी संगठन है. KAMS संभवतः भारत का 'बेस्ट केप्ट सीक्रेट' है. अनुराधा हमेशा कहा करती थीं कि उनकी ज़िंदगी का सबसे संतोषप्रद दौर दंडकारण्य में पीपुल्स वार (अब सीपीआई माओवादी) के गुरिल्लों के साथ बिताए गए यही साल थे. जब मैं अनुराधा की मृत्यु के लगभग दो साल बाद उस इलाके में गई तो मैनें KAMS के प्रति उनके विस्मय एवं उत्साह को खुद महसूस किया और मुझे स्त्री एवं सशस्त्र संघर्ष के प्रति अपने कुछ सरल अनुमानों पर फिर से विचार करना पड़ा.    

दंडकारण्य के स्त्री आन्दोलन के लिए उनके स्पष्ट उत्साह ने क्रांतिकारी आन्दोलन के भीतर महिला कामरेडों की समस्याओं के प्रति उनकी आँखें नहीं मूँद रखी थी. अपनी मौत के समय वे इसी पर काम कर रही थीं कि माओवादी पार्टी को स्त्रियों के प्रति भेदभाव के अवशेषों और अपने आप को क्रांतिकारी कहने वाले पुरुष कामरेडों के भीतर जिद्दी ढंग से जड़ जमाए पितृसत्ता के विभिन्न रंगों से कैसे शुद्ध रखा जाए. बस्तर में PLGA के साथ मेरे समय बिताने के दौरान तमाम कामरेड उन्हें बहुत प्यार से याद करती थीं. वे उन्हें कामरेड जानकी के नाम से जानती थीं. उन लोगों के पास उनकी एक घिसी सी तस्वीर थी जिसमें वे वर्दी पहने और अपना ट्रेडमार्क चश्मा लगाए कंधे पर एक राइफल डाले जंगल में प्रफुल्लित खड़ी थीं. 

अनु, अवन्ती, जानकी -- वे अब नहीं हैं. और वे अपने साथी कामरेडों को दुःख के ऐसे भंवर में छोड़ गई हैं जिससे शायद वे कभी नहीं उबर पाएंगे. वे अपने पीछे कागजों का यह पुलिंदा, ये लेख, नोट्स और निबंध छोड़ गई हैं. और मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि मैं एक बड़े पाठक वर्ग के सामने इन्हें प्रस्तुत करूँ.     

यह समझना बड़ा मुश्किल रहा कि इन लेखों को कैसे  पढ़ा जाए. जाहिर है कि वे इस दृष्टिकोण से नहीं लिखे गए थे कि कभी उन्हें एक संग्रह के रूप में प्रकाशित किया जाएगा. पहली बार पढ़ने पर वे थोड़ा बुनियादी और अक्सर कुछ दुहराव भरे और कुछ उपदेशात्मक लग सकते हैं. मगर दूसरी और तीसरी बार पढ़ने पर मैं उन्हें एक अलग ढंग से देखने लगी. अब मैं उन्हें इस तरह से देखती हूँ कि वे अनुराधा द्वारा खुद अपने लिए तैयार किए गए नोट्स हैं. उनका अनगढ़पन, उबड़-खाबड़ गुण, यह तथ्य कि उनकी कुछ बातें हैण्ड ग्रेनेड की तरह कागजों से निकलकर विस्फोट करती हैं, उन्हें बहुत अधिक व्यक्तिगत बनाती हैं. उनसे गुजरते हुए आप एक ऐसे शख्स के दिमाग की झलक पा सकते हैं जो एक गंभीर अध्येता या विद्वान हो सकती थी मगर उसने अपनी अंतरात्मा की सुनते हुए चुपचाप बैठकर अपने आस-पास हो रहे भयानक अन्याय को महज सिद्धान्तबद्ध करना नामुमकिन पाया. ये लेख एक ऐसे व्यक्ति को उद्घाटित करते हैं जो सिद्धांत और व्यवहार, विचार और कार्य को जोड़ने में जी जान से जुटी है. जिस देश में वे रहती थीं और जिन लोगों के बीच रहती थीं, उनके लिए कुछ वास्तविक और जरूरी करने का फैसला कर चुकने के पश्चात, इन लेखों में अनुराधा ने हमें (और खुद को) यह बताने की कोशिश की है वे एक उदारवादी एक्टिविस्ट, एक रैडिकल फेमिनिस्ट, एक पर्यावरण-नारीवादी या अम्बेडकरवादी बनने की बजाए मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्यों बनीं. ऐसा करने के लिए वे हमें इन आन्दोलनों के इतिहास के एक बुनियादी दौरे पर ले जाती हैं और विभिन्न विचारधाराओं का एक संक्षिप्त विश्लेषण करते हुए उनकी अच्छाइयां और कमियाँ बताती चलती हैं मानो कोई टीचर मोटे फ्लोरोसेंट मार्कर से परीक्षा के प्रश्न-पत्र को सही कर रही हो. अंतर्दृष्टियाँ और टिप्पणियां कभी-कभी सरल नारेबाजी में तिरोहित हो जाती हैं मगर ज्यादातर वे गंभीर और कभी-कभी तो एकदम अद्भुत हैं जिन्हें कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जो तेज राजनीतिक दिमाग वाला हो और अपने विषय को सिर्फ इतिहास और समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों की बजाए प्रेक्षण और अनुभव के बलबूते अंतरंगता से समझता हो. 

संभवतः अपने लेखन और अपनी राजनीति में अनुराधा का सबसे बड़ा योगदान लिंग भेद और दलित मुद्दों पर उनका काम है. वे जाति की रूढ़िवादी मार्क्सवादी व्याख्या (जाति वर्ग है) की कटु आलोचक हैं और इसे बौद्धिक आलस्य मानती हैं. वे बताती हैं कि उनकी अपनी पार्टी ने जाति के मुद्दे को ठीक से न समझकर अतीत में गल्तियाँ की हैं. वे दलित आन्दोलन के पहचान के संघर्ष में बदल जाने की आलोचना करती हैं जो कि क्रांतिकारी न होकर सुधारवादी है और जो आंतरिक रूप से अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में व्यर्थ ही न्याय की तलाश करता रहा है. उनका मानना है कि पितृसत्ता और जाति-व्यवस्था को ईंट दर ईंट उजाड़े बिना कोई नई लोकतांत्रिक क्रान्ति नहीं हो सकती.   

जाति और लिंग पर अपने लेखन में अनुराधा गांधी हमें ऐसे दिमाग और दृष्टिकोण से परिचित कराती हैं जो सूक्ष्म ब्यौरों में जाने से से नहीं डरता, जो मतांधता से भिड़ने में नहीं डरता और किसी चीज को ज्यों का त्यों कहने से नहीं डरता -- अपने साथी कामरेडों से और उस व्यवस्था से भी जिससे वे आजीवन संघर्ष करती रहीं. सचमुच, क्या गजब की महिला थीं वे.  
                                                                  :: :: :: 

9 comments:

  1. बढिया! कुछ अच्छी बातें लेकिन एक बात हम कहेंगे ही...

    अरूंधति या सारे वामपंथी किस्म के या मार्क्सवादी जाने माने लोग बात करते हैं आम जनता की, सर्वहारा की, समाज की... लेकिन लिखते हैं 100 में 95 बार लुटेरों, साम्राज्यवादियों, शोषकों की भाषा में! और इसलिए आम जनता या साधारण पढा लिखा कोई आदमी भला इनकी बात समझने के लिए बिना अनुवाद रूपी बैसाखी के काम नहीं चला सकता... ...

    इस बात का अफसोस हमेशा रहेगा, है और होता है... ...
    चाहे वे इतिहासकार हों, विचारक हों, लेखक हों, कार्यकर्ता हों... ... सबका यही हाल है!
    उफ्फ!

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  2. उदाहरण- रामशरण शर्मा, देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, कोसांबी से लेकर अब अरूंधति तक... यशपाल या राहुल सांकृत्यायन जैसे कुछ लोग यह इज्जत बचाये हुए हैं...

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  3. चंदन जी की बातों से नेरी पूर्ण सहमति है। शायद इसीलिए साम्यवाद का विचार भारत में जनता के लेवल तक नहीं पहुँच पाया है।

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  4. चंदन जी की शिकायत से पूर्ण सहमति है।

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  5. Anuradha jaisee mahaan mahila se parichay karaane ke liye dhanyawaad. Anuradha Gandhi ko mera ashrupurna naman.. - Reena Satin

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  6. pawan ji ekpost men maine shikyat ki thi. anuradha gandhi ke bare men na bataye jane ki. shikayat door hui.

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  7. MANOJ JI, MAI AAP KA KAISE SUKRIYA ADDA KARU PATA NAHI, MAI KAFI BHIBHUT HU AUR AAPKI PARKHI NAJAR KI KAYAL, AAP ANUWAD KARNE K LIYE JO KAVITA YA ARTICAL CHUNTE HAI VO SUCH MUCH BEHAD CHUNAUTIPURNA HOTE HAI, ARUNDHATI NAY ANURADHA GANDHI K BARE MAY KYA KAHA VO BILKUL INMORTAN NAHI HAI IMPORTANT YE HAI KE AAPNE ANU WALA ARTICAL CHUNA TRANSLATE KARNE KA LIYE ,ARUNDHATI BAHUT CHOTI HAI ANU K BARE MAY KUCH LIKHNE, AUR ANU KO SAMJNE K LIYE . LAKIN PATHKO K PASS KUCH NAHI SAY BEHTAR KUCH TOH PAHUCHA YE IMPORTANT HAI.INTAZAR RAHEGA ACCHE ARTICAL AUR KAVITAO KA. SUKRIYA

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  8. मनोज जी,
    अनुराधा गांधी विषय में अरुंधती राय का लेख प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.

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