Saturday, June 1, 2013

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : ज़िंदा रहना एक मिकानिकी अजीयत है

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...   














ज़िंदा रहना एक मिकानिकी अजीयत है : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यन्तरण : मनोज पटेल) 
 
ज़िंदा रहना एक मिकानिकी अजीयत है 
हम समझ सकते हैं 
अपनी शर्मगाहों को गहरा काटकर 
मर जाने वाली लड़कियाँ  
क्यों कोई अलविदाई ख़त नहीं छोड़तीं 
और बच्चों की हड्डियां 
कैसे 
दरख़्त की सब्ज़ टहनी की तरह मुड़ जाती हैं 

यह दरख़्त पाकिस्तान में हर जगह पाया जाता है 

हम जानते हैं 
ज़ियाफ़त की किस मेज पर 
सेबों को हमारे मुल्क के परचम से चमकाया जा रहा है 
मगर 
गवाह चार किस्म के होते हैं 
और फैसला हमेशा साफ़ हुरूफ़ों में लिखा जाता है 

हम उस लड़की की तरह नहीं 
जो रजामंदी देने का मतलब नहीं समझती 
और मलिका की काली ब्रेजियर्स 
और तीन हजार जूतियों को 
चूमने से मुतनफ़्फ़िर है 

हमें दिया गया ज़हर 
हमारे जिस्म से आंसुओं के जरिए ख़ारिज नहीं होगा 

वैनेशियन ब्लाइंड से झाँककर 
हम देख सकते हैं 
आबी भेड़िए किस तरह 
हमारी औरतों को हामिला कर रहे हैं 
और हमारी मुसावातें 
कहाँ हल हो रही हैं 

फिर भी हमारी जिम्मेदारी है 
उस शख्स को,  
जो अपनी उंगलियों के सिरों से 
नज़र न आने वाले धागे निकालने की कोशिश कर रहा है, 
बता दें 
ज़िंदा रहना एक तस्सुवराती अजीयत भी है 
                    :: :: :: 

मिकानिकी  :  यांत्रिक, संवेदनाहीन  
अजीयत  :  यातना 
शर्मगाह  :  जननांग, भग 
सब्ज़  :  हरी 
ज़ियाफ़त  :  अतिथि पूजा, मेहमाननवाज़ी 
हुरूफ़ों  :  अक्षरों 
मुतनफ़्फ़िर  :  नफरत करने वाली, गैररजामंद 
आबी भेड़िए  :  समुद्री भेड़िए 
हामिला  :  गर्भवती 
मुसावातें  :  समीकरण  
तस्स्वुराती  :  काल्पनिक 

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